Monday 29 April 2013

कौवे और इन्सान का मांस


एक दिन एक कव्वे के बच्चे ने कहा की हमने लगभग हर चौपाय जीव का मांस खाया है. मगर आजतक दो पैर पर चलने वाले जीव का मांस नहीं खाया है. पापा कैसा होता है इंसानों का मांस?

पापा कव्वे ने कहा मैंने जीवन में तीन बार खाया है, बहुत स्वादिष्ट होता है.

कव्वे के बच्चे ने कहा मुझे भी खाना है... कव्वे ने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा चलो खिला देता हूँ.

बस मैं जैसा कह रहा हूँ वैसे ही करना... मैंने ये तरीका अपने पुरखों से सीखा है.

कव्वे ने अपने बेटे को एक जगह रुकने को कहा और थोड़ी देर बाद मांस का दो टुकड़ा उठा लाया. कव्वे के बच्चे ने खाया तो कहा की ये तो सूअर के मांस जैसा लग रहा है.

पापा ने कहा अरे ये खाने के लिए नहीं है, इस से ढेर सारा मांस बनाया जा सकता है. जैसे दही जमाने के लिए थोड़ा सा दही दूध में डाल कर छोड़ दिया जाता है वैसे ही इसे छोड़ कर आना है. बस देखना कल तक कितना स्वादिष्ट मांस मिलेगा, वो भी मनुष्य का.

बच्चे को बात समझ में नहीं आई मगर वो पापा का जादू देखने के लिए उत्सुक था.

पापा ने उन दो मांस के टुकड़ों में से एक टुकड़ा एक मंदिर में और दूसरा पास की एक मस्जिद में टपका दिया.

तबतक शाम हो चली थी, पापा ने कहा अब कल सुबह तक हम सभी को ढेर सारा दुपाया जानवरों का मांस मिलने वाला है.

सुबह सवेरे पापा और बच्चे ने देखा तो सचमुच गली गली में मनुष्यों की कटी और जली लाशें बिखरी पड़ीं थी.

हर तफ़र सन्नाटा था. पुलिस सड़कों पर घूम रही थी. जमालपुर में कर्फ्यू लगा हुआ था.

आज बच्चे ने पापा कव्वे से दुपाया जानवर का शिकार करना सीख लिया था.

बच्चे कव्वे ने पूछा अगर दुपाया मनुष्य हमारी चालाकी समझ गया तो ये तरीका बेकार हो जायेगा.

पापा कव्वे ने कहा सदियाँ गुज़र गईं मगर आजतक दुपाया जानवर हमारे इस जाल में फंसता ही आया है.

सूअर या बैल के मांस का एक टुकड़ा, हजारों दुपाया जानवरों को पागल कर देता है, वो एक दूसरे को मारने लग जाते हैं और हम आराम से उन्हें खाते हैं.

मुझे नहीं लगता कभी उसे इंतनी अक़ल आने वाली है.

कव्वे के बेटे ने कहा क्या कभी किसी ने इन्हे समझाने की कोशिश नहीं की

कव्वे ने कहा एक बार एक बागी कव्वे ने इन्हे समझाने की कोशिश की थी मनुष्यों ने उसे सेकुलेर

कह के मार दिया...........

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Tuesday 16 April 2013

संगत


हकीम लुकमान ने एक दिन अपने बेटे को पास बुला कर धूपदान की ओर इशारा किया.इशारे को समझ बेटा धूपदान में से एक मुट्ठी चंदन का चूरा ले आया. फिर लुकमान ने दूसरा इशारा किया. इशारा समझ बेटा दूसरे हाथ में चूल्हे में से कोयला ले आया.

लुकमान ने फिर इशारा किया कि दोनों को फेंक दो. बेटे ने दोनो को फेंक दिया. लुकमान ने बेटे से जानना चाहा कि अब उसके हाथों में क्या है? बेटे ने बताया कि दोनों हाथ खाली हैं. लुकमान ने कहा, ऐसा नहीं है. अपने हाथों को गौर से देखो. बेटे ने अनुभव किया कि जिस हाथ में चंदन का चूरा था, वह अब भी खुशबू बिखेर रहा है और जिस हाथ में कोयला रखा था, उसमें अब भी कालिख नजर आ रही थी. लुकमान ने कहा, बेटा, चंदन का चूरा अब भी तुम्हारे हाथ में खुशबू दे रहा है, जबकि तुम्हारे हाथ में अब चंदन नहीं है. कोयले का टुकड़ा तुमने हाथ में लिया तो तुम्हारा हाथ काला हो गया और उसे फेंक देने के बाद भी हाथ काला है.

इसी तरह दुनिया में कुछ लोग चंदन की तरह होते हैं, जिनके साथ जब तक रहो तब तक हमारा जीवन महकता रहता है और उनका साथ छूट जाने पर भी वह महक हमारे जीवन से जुड़ी रहती है. दूसरे ऐसे होते हैं जिनके साथ रहने से भी और साथ छूटने पर भी जीवन कोयले की तरह कलुषित होता है.

यदि आप दक्ष और प्रतिष्ठित लोगों से जुड़े हैं, तो आपको यह बताने में गर्व महसूस होता होगा कि मैं फलां व्यक्ति के साथ काम कर रहा हूं. सामनेवाले पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ता है. दूसरी ओर कम प्रतिष्ठित लोगों के साथ काम करने पर आपकी छवि भी वैसी ही बन जाती है, भले ही आप बहुत प्रतिभाशाली हों.

कोशिश यही करें कि अपने फील्ड के प्रतिष्ठित लोगों के साथ ही काम करें, ताकि न केवल ज्यादासे ज्यादा सीख सकें, बल्कि आपकी अच्छी ब्रांडिंग भी हो ।

Wednesday 10 April 2013

इश्वर कहाँ है


कहाँ हैं भगवान ?

एक आदमी हमेशा की तरह अपने नाई की दूकान पर बाल कटवाने गया.

बाल कटाते वक़्त अक्सर देश-दुनिया की बातें हुआ करती थीं…. आज भी वे सिनेमा, राजनीति और खेल जगत, इत्यादि के बारे में बात कर रहे थे कि अचानक भगवान् के अस्तित्व को लेकर बात होने लगी.

नाई ने कहा, “ देखिये भैया, आपकी तरह मैं भगवान् के अस्तित्व में यकीन नहीं रखता.”

“तुम ऐसा क्यों कहते हो?” आदमी ने पूछा.

“अरे, ये समझना बहुत आसान है, बस गली में जाइए और आप समझ लेगे कि भगवान् नहीं है. आप ही बताइए कि अगर भगवान् होते तो क्या इतने लोग बीमार होते? इतने बच्चे अनाथ होते ? अगर भगवान् होते

तो किसी को कोई दर्द कोई तकलीफ नहीं होती”, नाई ने बोलना जारी रखा, “मैं ऐसे भगवान के बारे में नहीं सोच सकता जो इन सब चीजों को होने दे. आप ही बताइए कहाँ है भगवान?”

आदमी एक क्षण के लिए रुका, कुछ सोचा, पर बहस बढे ना इसलिए चुप ही रहा. नाई ने अपना काम ख़त्म किया और आदमी कुछ सोचते हुए दुकान से बाहर निकला और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया. . कुछ देर इंतज़ार करने के बाद उसे एक लम्बी दाढ़ी–मूछ वाला अधेड़ व्यक्ति उस तरफ आता दिखाई पड़ा, उसे देखकर लगता था मानो वो कितने दिनों से नहाया-धोया ना हो.

आदमी तुरंत नाई कि दुकान में वापस घुस गया और बोला, “ जानते हो इस दुनिया में नाई नहीं होते!”

“भला कैसे नहीं होते हैं?, नाई ने सवाल किया, “

मैं साक्षात तुम्हारे सामने हूँ!! ”

“नहीं ” आदमी ने कहा, “वो नहीं होते हैं, वरना किसी की भी लम्बी दाढ़ी–मूछ

नहीं होती पर वो देखो सामने उस आदमी की कितनी लम्बी दाढ़ी-मूछ है !!”

“अरे नहीं भाई साहब नाई होते हैं लेकिन बहुत से लोग हमारे पास नहीं आते.” नाई बोला

“बिलकुल सही ” आदमी ने नाई को रोकते हुए कहा,”यही तो बात है, भगवान भी होते हैं पर लोग उनके पास नहीं जाते और ना ही उन्हें खोजने का प्रयास करते हैं, इसीलिए दुनिया में इतना दुःख-दर्द है.”

पिप्लाद


महर्षि दधिचि के पुत्र का नाम था पिप्लाद। चूंकि वह सिर्फ पीपल का फल ही खाया करते थे , इसलिए उन्हें पिप्लाद के नाम से पुकारा जाता था। दरअसल , अपने पिता की तरह पिप्लाद भी बहुत तेजवान और तपस्वी था। जब पिप्लाद को यह पता चला कि देवताओं को अस्थि-दान देने के कारण उनके पिता की मृत्यु हो गई , तो उन्हें बहुत दुख हुआ। आगबबूला होकर उन्होंने देवताओं से बदला लेने का निश्चय किया। यही सोचकर वह शंकर भगवान को खुश करने के लिए उनकी तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से अंतत: शंकर भगवान खुश हुए और पिप्लाद से वरदान मांगने को कहा। पिप्लाद ने भगवान से प्रार्थना की , ' हे आशुतोष! मुझे ऐसी शक्ति दो , जिससे मैं देवताओं से अपने पिता की मृत्यु का बदला ले सकूं। ' भगवान शंकर तथास्तु कहकर अंर्तध्यान हो गए।

उनके अंर्तध्यान होने के तुरंत बाद वहां एक काली कलूटी लाल-लाल आंखों वाली राक्षसी प्रकट हुई। उसने पिप्लाद से पूछा , ' स्वामी आज्ञा दीजिए , मुझे क्या करना है। ' पिप्लाद ने गुस्से में कहा , ' सभी देवताओं को मार डालो। ' आदेश मिलते ही राक्षसी पिप्लाद की तरफ झपट पड़ी। पिप्लाद अचंभित हो चीख पड़ा , ' यह क्या कर रही हो ?' इस पर राक्षसी ने कहा , ' स्वामी अभी-अभी आपने ही तो मुझे आदेश दिया है कि सभी देवताओं को मार डालो। मुझे तो सृष्टि के हर कण में किसी-न-किसी का वास नजर आता है। सच तो यह है कि आपके शरीर के हर अंग में भी कई देवता दिख रहे हैं मुझे। और इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न शुरुआत आपसे ही करूं। '

पिप्लाद भयभीत हो उठे! उन्होंने फिर से शंकर भगवान की तपस्या की। भगवान फिर प्रकट हुए। पिप्लाद के भय को समझकर उन्होंने पिप्लाद को समझाया , ' वत्स। गुस्से में आकर लिया गया हर निर्णय भविष्य में गलत ही साबित होता है। पिता की मृत्यु का बदला लेने की धुन में तुम यह भी भूल गए कि दुनिया के कण-कण में भगवान का वास है। तुम उस दानी के पुत्र हो , जिसके आगे देवता भी भीख मांगने को मजबूर हो गए थे। इतने बड़े दानी के पुत्र होकर भी तुम भिक्षुकों पर क्रोध करते हो ?' यह सुनते ही पिप्लाद का क्रोध शांत हो गया और उन्होंने भगवान से क्षमा मांगी। इस तरह एक बार फिर देवत्व की रक्षा हुई।

स्व तन्त्र


बहुत समय पहले की बात है एक बड़ा सा तालाब था उसमें सैकड़ों मेंढक रहते थे। तालाब में कोई राजा नहीं था, सच मानो तो सभी राजा थे। दिन पर दिन अनुशासनहीनता बढ़ती जाती थी और स्थिति को नियंत्रण में करने वाला कोई नहीं था। उसे ठीक करने का कोई यंत्र तंत्र मंत्र दिखाई नहीं देता था। नई पीढ़ी उत्तरदायित्व हीन थी। जो थोड़े बहुत होशियार मेंढक निकलते थे वे पढ़-लिखकर अपना तालाब सुधारने की बजाय दूसरे तालाबों में चैन से जा बसते थे।

हार कर कुछ बूढ़े मेंढकों ने घोर तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और उनसे आग्रह किया कि तालाब के लिये कोई राजा भेज दें। जिससे उनके तालाब में सुख चैन स्थापित हो सके। शिव जी ने प्रसन्न होकर "नंदी" को उनकी देखभाल के लिये भेज दिया। नंदी तालाब के किनारे इधर उधर घूमता, पहरेदारी करता लेकिन न वह उनकी भाषा समझता था न उनकी आवश्यकताएँ। अलबत्ता उसके खुर से कुचलकर अक्सर कोई न कोई मेंढक मर जाता। समस्या दूर होने की बजाय और बढ़ गई थी। पहले तो केवल झगड़े झंझट होते थे लेकिन अब तो मौतें भी होने लगीं।

फिर से कुछ बूढ़े मेंढकों ने तपस्या से शिव जी को प्रसन्न किया और राजा को बदल देने की प्रार्थना की। शिव जी ने उनकी बात का सम्मान करते हुए नंदी को वापस बुला लिया और अपने गले के सर्प को राजा बनाकर भेज दिया। फिर क्या था वह पहरेदारी करते समय एक दो मेंढक चट कर जाता। मेंढक उसके भोजन जो थे। मेंढक बुरी तरह से परेशानी में घिर गए थे।

फिर से मेंढकों ने घबराकर अपनी तपस्या से भोलेशंकर को पुनः प्रसन्न किया ।

शिव भी थे तो भोलेबाबा ही, सो जल्दी से प्रकट हो गए। मेंढकों ने कहा, 'आपका भेजा हुआ कोई भी राजा हमारे तालाब में व्यवस्था नहीं बना पाया। समझ में नहीं आता कि हमारे कष्ट कैसे दूर होंगे। कोई यंत्र या मंत्र काम नहीं करता। आप ही बताएँ हम क्या करें?'

इस बार शिव जी जरा गंभीर हो गए। थोड़ा रुक कर बोले, यंत्र मंत्र छोड़ो और "स्वतंत्र" स्थापित करो। मैं तुम्हें यही शिक्षा देना चाहता था। तुम्हें क्या चाहिये और तुम्हारे लिये क्या उपयोगी वह केवल तुम्हीं अच्छी तरह समझ सकते हो। किसी भी तंत्र में बाहर से भेजा गया कोई भी विदेशी शासन या नियम चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो तुम्हारे लिये अच्छा नहीं हो सकता। इसलिये अपना स्वाभिमान जागृत करो, संगठित बनो, अपना तंत्र बनाओ और उसे लागू करो। अपनी आवश्यकताएँ समझो, गलतियों से सीखो। माँगने से सबकुछ प्राप्त नहीं होता, अपने परिश्रम का मूल्य समझो और समझदारी से अपना तंत्र विकसित करो।

मालूम नहीं फिर से उस तालाब में शांति स्थापित हो सकी या नहीं। लेकिन इस कथा से भारतवासी भी बहुत कुछ सीख सकते हैं...

इश्वर कहाँ


संत नामदेव अपने शिष्यों के साथ रोज की तरह धर्म चर्चा में लीन थे। तभी एक जिज्ञासु उनसे प्रश्न कर बैठा-"गुरूदेव, कहा जाता है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है, तो उसे अनुभव कैसे किया जा सकता है? क्या आप उसकी प्राप्ति का कोई उपाय बता सकते हैं?" नामदेव यह सुनकर मुस्कराए। फिर उन्होंने उसे एक लोटा पानी और थोड़ा सा नमक लाने को कहा। वहां उपस्थित शिष्यों की उत्सुकता बढ़ गई।

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वे सोचने लगे, पता नहीं उनके गुरूदेव कौन सा प्रयोग करना चाहते हैं। नमक और पानी के आ जाने पर संत ने नमक को पानी में छोड़ देने को कहा। जब नमक पानी में घुल गया तो संत ने पूछा- "बताओ, क्या तुम्हें इसमें नमक दिख रहा है?" जिज्ञासु बोला- "नहीं गुरूदेव, नमक तो इसमें पूरी तरह घुल-मिल गया है।" संत ने उसे पानी चखने को कहा। उसने चखकर कहा- "जी, इसमें नमक उपस्थित है, पर वह दिखाई नहीं दे रहा।" अब संत ने उसे जल उबालने को कहा। पूरा जल जब भाप बन गया तो संत ने पूछा- "क्या इसमें वह दिखता है?" जिज्ञासु ने गौर से लोटे को देखा और कहा-"हां, अब इसमें नमक दिख रहा है।" तब संत ने समझाया-"जिस तरह नमक पानी में होते हुए भी दिखता नहीं, उसी तरह ईश्वर भी हर जगह अनुभव किया जा सकता है, मगर वह दिखता नहीं। जिस तरह जल को गर्म करके तुमने नमक पा लिया, उसी प्रकार तुम भी उचित तप और कर्म करके ईश्वर को प्राप्त कर सकते हो।" यह सुनकर सभी लोग संत नामदेव के प्रति नतमस्तक हो गए।

मानसिक


एक आदमी कहीं से गुजर रहा था, तभी उसने सड़क के किनारे बंधे हाथियों को देखा तो रूक गया। उसने देखा कि हाथियों के अगले पैर में एक रस्सी बंधी हुई है। उसे इस बात पर आश्चर्य हुआ कि हाथी जैसे विशालकाय जीव लोहे की जंजीरों की जगह बस एक छोटी सी रस्सी से बंधे हुए हैं। वे चाहते तो अपने बंधन तोड़ कर कहीं भी जा सकते थे, पर वे ऎसा नहीं कर रहे थे। उसने पास खड़े महावत से पूछा- "भला ये हाथी किस प्रकार इतनी शांति से खड़े हैं और भागने का प्रयास भी नहीं कर रहे हैं।" महावत ने कहा- "इन हाथियों को छोटी उम्र से ही इन रस्सियों से बांधा जाता है। उस समय इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती कि इस बंधन को तोड़ सकें, बार-बार प्रयास करने पर भी रस्सी न तोड़ पाने के कारण उन्हें धीरे-धीरे यकीन होता जाता है कि वे इन रस्सियों को नहीं तोड़ सकते और बड़े होने पर भी उनका यह यकीन बना रहता है। इसलिए वे कभी इसे तोड़ने का प्रयास ही नहीं करते।" उस आदमी को यह बात बड़ी रोचक लगी। उसने इसके बारे में एक संत से चर्चा की।

संत ने मुस्कराकर कहा- "ये जानवर इसलिए अपना बंधन नहीं तोड़ सकते क्योंकि वे इस बात में यकीन करते हैं। इन हाथियों की तरह हममें से कई लोग अपनी किसी विफलता के कारण मान बैठते हैं कि अब उनसे ये काम हो ही नहीं सकता। वे अपनी बनाई हुई मानसिक जंजीरों में पूरा जीवन गुजार देते हैं, लेकिन मनुष्य को कभी प्रयास छोड़ना नहीं चाहिए। सतत प्रयास से ही सफलता मिलती है।

कुकुन से संघर्ष


एक राहगीर को सड़क किनारे किसी झाड़ पर एक तितली का अधखुला कोकून(यह एक खोल होता है जिसमें से तितली का जन्म होता  है )  दिखा ।वहां बैठकर कुछ घंटे उस  तितली को देखता रहा जो छोटे से छिद्र से बहार निकलने के लिए जी-तोड़ कोशिश किये जा रही थी. पर उससे बाहर निकलते नहीं बन रहा था। ऐसा लग रहा था कि तितली का उससे बाहर निकलना सम्भव नहीं है।

उस आदमी ने सोचा कि तितली की मदद की जाए। उसने कहीं से एक कतरनी लाया  और तितली के निकलने के छेद को थोड़ा सा बड़ा कर दिया।अब  तितली उसमें से आराम से निकल सकती थी । लेकिन वह बेहद कमज़ोर लग रही थी और उसके पंख भी नहीं खुल रहे थे। आदमी बैठा-बैठा तितली के पंख खोलकर फडफडाने का इंतजार करता रहा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ।तितली ककून में ही फड़-फड़ाती रही पर तितली कभी नहीं उड़ पाई, और एक दिन मर गयी .

उस व्यक्ति को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ ?  उस आदमी ने मदद किया काम आसान की,फिर क्यों नहीं उड़  पायी ?

दरअसल उस राहगीर को यह नहीं मालुम था की तितली का यही संघर्ष उसे जिंदगी में उड़न भरने का मौका देता है. उससे  बाहर आने की प्रक्रिया में ही उस तितली के तंतु जैसे पंखों में पोषक द्रव्यों का संचार होता है , यह प्रकृति की व्यवस्था थी कि तितली  अथक प्रयास करने के बाद ही ककून  से  पुख्ता  होकर बाहर निकलती है .

इसी तरह हमें भी अपने जीवन में संघर्ष करने की ज़रूरत होती है। यदि प्रकृति और जीवन हमारी राह में किसी तरह की बाधाएं न आने दें तो हम सामर्थ्यवान कभी न बन सकेंगे। जीवन में यदि शक्तिशाली और सहनशील बनना हो तो कष्ट तो उठाने ही पड़ेंगे।

गौरतलब: जिंदगी में ऊँची उडान भरने  के लिए अपने ककून (कठिन परिस्थिति) से संघर्ष  जरुरी है ,संघर्ष जितना लम्बा और कठिन होगा  आपकी उपलब्धि उतनी बड़ी और  पुख्ता होगी.

उपदेश


एक बार समर्थ स्वामी रामदासजी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी - “जय जय रघुवीर समर्थ !” घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोलीमे भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए !”

स्वामीजी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।”

दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज दी – “जय जय रघुवीर समर्थ !”उस घर की स्त्रीने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमे बादाम-पिस्ते भी डाले थे।वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामीजीने अपना कमंडल आगे कर दिया। वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।”

स्वामीजी बोले, “हाँ, गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।” स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।”

स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न ?”

स्त्री ने कहा : “जी महाराज !”

स्वामीजी बोले, “मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा। यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।"

परिवर्तन


एक वृद्ध समुद्र के किनारे टहल रहे थे ।

उन्होने देखा कि समुद्र

की सैकडों मछलियां बहाव के साथ किनारे

रेत पर आ गई हैं और उसमें फंसकर तडप

रही हैं। तभी उसने देखा कि एक

छोटा बच्चा वहां उन बडी और

भारी मछलियों को बडे प्रयास से वापस

समुद्र में डाल रहा था मछली को पकडने और

उसे पकड कर समुद्र के पानी तक ले जाने में

काफी समय लग रहा था। उन वृद्ध ने उस

छोटे से बच्चे से पूछा- समुद्र के किनारे रेत में

तो सैकडों मछलियां फंसी हुई हैं, आठ-दस

मछलियां समुद्र में डालने से क्या होगा, इन

सैकडों मछलियों की जान तो नहीं बच

जाएगी। फिर क्यों इतनी मेहनत कर रहे

हो बेटा ?

उस छोटे से बच्चे ने एक और मछली उठाकर

समुद्र में ले जाते हुए जवाब दिया- इस

मछली की तो जान बच ही जाएगी।

भावार्थ : परिवर्तन तभी आता है, जबहम

थोडे से ही शुरुआत करें ।

पढेँ शेर फल क्यों नहीं खाता है?


एक मबावा नाम का एक सियार था , एक दिन उसने फलों से लदे था नामक पेडक़ो खोज निकाला । उसने पेड से गिरेपके रसीले फल इकठ्ठे किये और बस उनका स्वाद लेकर खाने बैठा ही था कि उसे दूर से आती शेर की दहाड सुनाई दी । उस चतुर सियार ने सोचाकि -

' लगता है शेर भूखा है , ऐसा न हो किवह इधर ही चला आए और ये मीठे फल मुझसे छीन कर खा जाए। वह चिन्तित हो गया कि सभी जानते हैं कि शेर तो जंगल का राजा है , और राजा होनेके नाते उसकी भूख बहुत ज्यादा है । और वह सबके खाने को छीन कर खाने को अपना अधिकार समझता है । उससे ना करने की किसी की हिम्मत तक नहीं होती ।

शेर की दहाड अब पास से आती सुनाई दी , लेकिन अब तक चतुर सियार ने शेर से था के रसभरे मीठे फलों को बचाने की तरकीब खोज निकाली थी । जैसे जैसे शेर पास आ रहा था मबावाने जल्दी जल्दी फलों के ढेर को खाना शुरु कर दिया , उसे पता चल गया कि शेर उसे लालचियों की तरह जल्दी जल्दी खाते हुए देख रहा है , तब अचानक वह जमीन गिर पडा और छटपटाने लगा और कराहने लगा फिर छटपटा कर मृत जानवर की तरह शांत और स्थिर हो गया , आखें भी उसने एकजगह टिका दीं ।

शेर ने सोचा कि जरूर ये फल जहरीलेहोंगे तभी ये बेवकूफ सियार इन्हें खाकर मर गया है । शेर अपनेरास्ते लौट गया । उसके नजरों से खूब दूर चले जाने के बाद मबावा उठा , उसने बचे हुए रसीले था के फलखाये और उसे याद आया कि पास ही नाले के पास एक दूसरे सियार का कंकाल पडा है । वह उसे उठा लाया और फलों के छिलकों के पास उसे पटकदिया , ठीक वहाँ जहाँ उसने अपने मरे हुए होने का नाटक किया था । अपनी तरकीब पर खुश होता हुआ सियार अपनी गुफा में लौट गया ।

जब कुछ सप्ताह बाद शेर था फल के पेड क़े पास से गुजरा तो पेड उसी तरह लाल रसीले फलों से लदा था , उसकी भूख जग आई वह कुछ कदम बढा पर वह ठिठक गया वहाँ बेचारे लालची सियार का कंकाल पडा था । उसे गिध्द नोच रहे थे । उसे याद आ गया कि ओह यह तो मबावा का कंकाल है वही यहाँ लालची की तरह इन फलों को हबड हबड ख़ा रहा था , फिर छटपटा कर गिर गया था । उसने कसम खाई कि वह अब कभी किसी पेड क़ा फल नहीं खाएगा ।

नोट==>अफ्रीकन कहानी के अनुसार ऐसे शेर ने फल खाना छोडा


मनोबल


राज़ा सुकीर्ति के पास एक लौहश्रुन्घ नामक हाथी था ..राजा ने कई युद्ध में उसपर चढ़ाई करके विजय पायी थी ..बचपन से ही उसे इसप्रकार से तैयार किया गया था कि युद्ध में शत्रु सैनिको को देखकर वो उनपर इस तरह टूट पड़ता किदेखते ही देखते शत्रु के पाँव उखड जाते ...

पर जब वो हाथी बुढा हो गया ..तो वह सिर्फ हाथी शाला की शोभा बन कर रहगया ..अब उसपर ध्यान नहीं देता था...भोजन में भी कमी कर दी गयी ..एकबार वो प्यासा हो गया तो एक तालाबमें पानी पिने गया पर वहा कीचड़ में उसका पैर फस गया और धीरेधीरेगर्दन तक कीचड़ में फस गया ..

अब सबको लगा कि ये हाथी तो मर जाएगा .इसे हम बचा ही नहीं पायेंगे ..राज़ा को जब पता चला तो वे बहुत दुखी हो गए ..पूरी कोशिश की गयी पर सफलता ही नहीं मिल रही थी ...

आखिर में एक चतुर सैनिक की सलाह से युद्ध का माहौल बनाया गया..वाद्ययंत्र­ मंगवाए गए....नगाड़े बजवाये गए और ऐसा माहौल बनाया गया कि शत्रु सैनिक लौहश्रुन्घ की ओर बढ़ रहे है .और फिर तो लौहश्रुन्घ में एक जोश आ गया ..गलेतक कीचड़ में धस जाने के बावजूद वहजोर से चिंघाड़ लगाकर सैनिको की ओर दौड़ने लगा ..बड़ी मुश्किल से उसेसंभाला गया ..ये है एक मनोबल बढ़ जाने से मिलने वाली ताकत का कमाल...जिसका मनोबल जाग जाता है वो असहाय और अशक्त होने के बावजूद भी असंभव काम कर जाता है।

सौदागर


जरूर पढेँ..???

एक फकीर कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक सौदागर मिला, जो पांच गधों पर बड़ी-बड़ी गठरियां लादे हुए जा रहा था। गठरियां बहुतभारी थीं, जिसे गधे बड़ी मुश्किल से ढो पा रहे थे। फकीर ने सौदागर से प्रश्न किया, ‘इन गठरियों में तुमने ऐसी कौन-सी चीजें रखी हैं, जिन्हें ये बेचारे गधे ढो नहीं पारहे हैं?’

सौदागर ने जवाब दिया , ‘इनमें इंसान के इस्तेमाल की चीजें भरी हैं। उन्हें बेचने मैं बाजार जा रहा हूं।’ फकीर ने पूछा, ‘अच्छा! कौन-कौन सी चीजें हैं, जरा मैं भी तो जानूं!

’ सौदागर ने कहा, ‘यह जो पहला गधा आप देख रहे हैं इस पर अत्याचार की गठरी लदी है।’ फकीर ने पूछा, ‘भला अत्याचार कौन खरीदेगा?’ सौदागर ने कहा, ‘इसके खरीदार हैं राजा-महाराजा और सत्ताधारी लोग। काफी ऊंची दर पर बिक्री होती है इसकी।’

फकीर ने पूछा, ‘इस दूसरी गठरी में क्या है?’ सौदागर बोला, ‘यह गठरी अहंकार से लबालब भरी है और इसके खरीदार हैं पंडित और विद्वान।

तीसरे गधे पर ईर्ष्या की गठरी लदीहै और इसके ग्राहक हैं वे धनवान लोग, जो एक दूसरे की प्रगति को बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसे खरीदने के लिए तो लोगों का तांता लगा रहता है।’

फकीर ने पूछा, ‘अच्छा! चौथी गठरी में क्या है भाई?’ सौदागर ने कहा, ‘इसमें बेईमानी भरी है और इसके ग्राहक हैं वे कारोबारी, जो बाजार में धोखे से की गई बिक्री से काफी फायदा उठाते हैं। इसलिए बाजार में इसके भी खरीदार तैयार खड़े हैं।

’ फकीर ने पूछा, ‘अंतिम गधे पर क्या लदा है?’ सौदागर ने जवाब दिया, ‘इस गधे पर छल-कपट से भरी गठरी रखी है और इसकी मांग उन लोगो में बहुत ज्यादा है जिनके पास घर में कोई काम-धंधा नहीं हैं और जो छल-कपट का सहारा लेकर दूसरों की लकीर छोटी कर अपनी लकीरबड़ी करने की कोशिश करते रहते हैं। वे ही इसकी खरीदार हैं।’

भगवान कहाँ है


एक धार्मिक व्यक्ति था,

भगवान में उसकी बड़ी श्रद्धा थी.

उसने मन ही मन प्रभु की एक तस्वीर बना रखी थी.

एक दिन भक्ति से भरकर उसने भगवान से कहा-

भगवान मुझसे बात करो.

और एक बुलबुल चहकने लगी लेकिन उस आदमी ने नहीं सुना.

इसलिए इस बार वह जोर से चिल्लाया,-

भगवान मुझसे कुछ बोलो तो

और आकाश में घटाएं उमङ़ने घुमड़ने लगी बादलो की गड़गडाहट होने लगी.

लेकिन आदमी ने कुछ नहीं सुना.

उसने चारो तरफ निहारा, ऊपर- नीचे सब तरफ देखा और बोला, -

भगवान मेरे सामने तो आओ और बादलो में छिपा सूरज चमकने लगा.

पर उसने देखा ही नही .

आखिरकार वह आदमी गला फाड़कर चीखने लगा भगवान मुझे कोई चमत्कार दिखाओ -

तभी एक शिशु का जन्म हुआ और उसका प्रथम रुदन गूंजने लगा

किन्तु उस आदमी ने ध्यान नहीं दिया.

अब तो वह व्यक्ति रोने लगा और भगवान से याचना करने लगा -

भगवान मुझे स्पर्श करो मुझे पता तो चले तुम यहाँ हो,

मेरे पास हो,मेरे साथ हो

और एक तितिली उड़ते हुए आकर उसके हथेली पर बैठ गयी लेकिन उसने तितली को उड़ा दिया,

और उदास मन से आगे चला गया.

भगवान इतने सारे रूपो मेंउसके सामने आया,

इतने सारे ढंग से उससे बात की पर उस आदमी ने पहचाना ही नहीं शायद उसके मन में प्रभु की तस्वीर ही नहीं थी.

सार...

हम यह तो कहते है कि ईश्वर प्रकृति के कण-कण में है,लेकिन हम उसे किसी और रूप मेंदेखना चाहते है इसलिए उसे कही देख ही नहीं पाते.

इसे भक्ति मे दुराग्रह भी कहते है.

भगवन अपने तरीके से आना चाहते और हम अपने तरीके से देखना चाहते है और बात नहीं बन पाती.

हमें भगवान को हर जगह हर पल महसूस करना चाहिए.